Friday, September 10, 2010

कुछ अजनबी से खयालात मेरे..

लेखनी वो मेरी, जब तुझे हम दिल की आह लिखा करते थे,
बेरुखी तेरी वो जब, हम दिल की तमन्ना बयाँ करते थे|
खो गयी वो भी अब कहीं वक़्त की गहराईयों में,
नज़र जो अब वो आयी उन तनहाईयों में..
समझ ना पाया था शायद मैं उन्हें तब.. वो जज्बात तेरे ..
होश खो देने को काफी थे वो.. बेरहम.. पर अफसलात तेरे||

एक अजनबी से यूँ.. मुलाक़ात तो ना होती|
लफ्ज़-बा-लफ्ज़.. तकरीरे हयात ना होती||
ग़र लफ्ज़ कुछ मिल जाते मुझे भी वाजिब..
बयां में मेरे... तकरारे गुमां ना होती||

Thursday, September 9, 2010

क्यूँ इसके फैसले हमें मंज़ूर हो गए.. क्यूँ ज़िन्दगी की राह में मजबूर हो गए...

आज कुछ लिखना जैसे बहुत भारी पड़ रहा है| सच, सोचा ना था कि ज़िन्दगी इस कदर गुजरेगी| भरा -पूरा परिवार, अच्छी-खासी कमाई, पर कहीं कुछ है जो आज मुझ से छिन सा गया है| मन कि शान्ति.. दिल का चैन.. पता नहीं कौन सी दुनिया में जी रहा हूँ मैं| जब अपने होश खो देता हूँ तो शायद चैन की नींद सो लेता हूँ| इच्छा होती है कि जैसे कहीं जंगलों में चला जावूँ, जहाँ मुझ तक कोई ना पहुँच पाए| खुद से भी कहीं भागना चाह रहा हूँ.. पर किसी डर से नहीं, सिर्फ दो पल के चैन के लिए| शायद मैं कहीं खुद से ही डरने लगा हूँ| वक़्त की कमी है, ज़िम्मेदारी बहुत भारी हैं और इच्छाओं का कोई अंत नहीं| और हाँ शायद मुझ से शिकायतों की फेहरिस्त भी बहुत लम्बी है.. बहुत से लोगों की| वो कहते हैं कि मैं उन्हें वक़्त नहीं देता| अब उन्हें क्या कहूँ.. वक़्त की ही तो कमी है|
पता नहीं.. मैं बहुत समझदार हो गया हूँ.. या बहुत से नासमझ लोगों से घिरा हुआ हूँ, जिस कदर मैं चल रहा हूँ, कोई मुझे समझ नहीं पा रहा है| शायद मैं ही कहीं गलती कर रहा हूँ| सपनों की दुनिया की तेज दौड़ में दांव लगा बैठा हूँ.. और जीतने का इरादा रखता हूँ| सूखी नदिया के किनारे बैठ.. नैय्या की तमन्ना रखता हूँ| मुझे पता है.. जीत आसान नहीं, पर हारने का इरादा मैं भी नहीं रखता|
लिख कर भी जब कोई लिख ना पाए.. मजबूर जब कोई हो जाए|
वक़्त से भी तन्हाई में बतियाये.. बस वो ही तो.. जिंदगानी.. सिर्फ तुझ से बतलाये||