Friday, September 10, 2010

कुछ अजनबी से खयालात मेरे..

लेखनी वो मेरी, जब तुझे हम दिल की आह लिखा करते थे,
बेरुखी तेरी वो जब, हम दिल की तमन्ना बयाँ करते थे|
खो गयी वो भी अब कहीं वक़्त की गहराईयों में,
नज़र जो अब वो आयी उन तनहाईयों में..
समझ ना पाया था शायद मैं उन्हें तब.. वो जज्बात तेरे ..
होश खो देने को काफी थे वो.. बेरहम.. पर अफसलात तेरे||

एक अजनबी से यूँ.. मुलाक़ात तो ना होती|
लफ्ज़-बा-लफ्ज़.. तकरीरे हयात ना होती||
ग़र लफ्ज़ कुछ मिल जाते मुझे भी वाजिब..
बयां में मेरे... तकरारे गुमां ना होती||

3 comments:

Udan Tashtari said...

क्या बात है!

संजय भास्‍कर said...

आह बहुत खूबसूरत कविता लिखी मनो दिल निचोड़ कर रख दिया हो.

संजय भास्‍कर said...

सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.