Monday, December 28, 2009

३ idiots - A truth about Indian technical competence

I happen to watch this movie called "3 idiots" last weekend and would reckon that those 3 idiots depicted in the movie says the truth about our system in India and to some extent not just the system, but a mentality of an ordinary Indian. Yeah, as I said ordinary Indian, that makes a big part of engineers and doctors (I should include MBA professionals as well).

When we start in the school, we just got to know about a couple of basic subjects and keep on pushing ourselves for that bookish knowledge without any materialistic knowledge. We might not know the meaning or a practical use or example of that knowledge base, but I am sure (and many others), we won't miss a single word from that bookish definition.

It was indeed a true "balatkaar" of actual knowledge(pardon my language) that is happening around in every school in the name of education.

Leave alone the basic school education, all the engineering education is in pathetic condition. The coursework is decades old. Labs are in worst possible condition. Just providing good machines without a capable instructor shouldn't be called a lab. Their should be a motivator, a guide, a technical guru to help you out and encourage you when you are hitting hurdles to achieve something. The truth is that the instructors are afraid to help you out such that their image will be tarnished(as they know they are in-competitive and less knowledgeable practically as compared to their students, in some cases).

Performance, Technical competence is no more a criteria for awards/promotions, its all reservations on various basis that secure you a better berth in the whole system.

Recently, I was reading a news that Gujrat govt is making it compulsory to vote for every citizen. I think its a tougher, but a good move. At least that will bring a new era of true voice from a suffering class that hesitates to vote till now. And hopefully, all those idiots will come to vote for a progressive government.

Last, but not least, 3 idiots made my day. Awesome movie..

Saturday, December 12, 2009

मेरी बेटी और मेरी पसंद -I+

एक रागनी जिसे सुन कर मेरी बेटी भी थिरकती है और मैं भी ....
तू राजा की राज दुलारी, मैं सिर्फ़ लंगोटे आला सूं.
भांग रगड़ कै पिया करूँ मैं कुण्डी सोटे आला सूं।।

तू राजा की छोरी सै, म्हारे एक भी दासी दास नही,
शाल-दुशाले औद्हन आली, म्हारे काम्बल तक भी पास नही।
.....
......
मुझे नही पता था की मेरी बेटी भी अपनी हरयान्वी से उतनी हे जुड़ी हुई है जितना की मैं। वक्त ने साथ निभाया तो उसकी हर सालगिरह पर उसका ये हरयान्वी प्रेम और उभर कर सामने आएगा।

Friday, December 11, 2009

एक बेटी और एक साल - I

एक अरसा बीत गया कुछ लिखे हुए, पर आज ख़ुद को रोक नही पा रहा हू कुछ लिखने के लिए। क्या करू, आज बेटी की याद ने कुछ इतना मजबूर कर दिया कि बस, अब दिन- रात एक सपना और एक परछाई, हाँ मेरी परछाई मुझे बार-२ कह रही है, ज़िन्दगी यहाँ भी है।
मुझे आज भी वो दिन याद है जब पहली बार मैंने अपनी परछाई, अपनी बेटी को देखा था, अपने हाथों से उसको छुवा था। एक नन्ही सी परी, ना सोचा था... ना ही वो कहीं ख्वाब में थी, पर एक कोई तो था जो आने वाला था। और जैसे ही मैंने उसे अपने हाथों में लिया... एक वो अहसास, जो शायद मैं अभी तक नही भूल पाया हू, मुझे आज भी कह रहा है, पापा मैं आपकी दुनिया में हू। एक नाज़ुक परी जैसे कहीं से उतर कर मेरे हाथों में आ गए हो, देख कर नज़र हटाने को मन नही कर रहा था।
कुछ दिन अपनी बेटी के साथ बिताने के बाद मुझे वापिस जाना पड़ा। मन नही कर रहा था, पर क्या करू मजबूरी थी और नौकरी के लिए जाना पड़ा। वक्त बीता और वो तीन महीने भी। मेरी बेटी मुझ से मिलने आ रही थी, एक अरसे बाद। पता नही कैसी होगी, एक छोटी सी परी।
सिडनी में:
आज तीन महीने बाद मैं अपनी बेटी को लेने एअरपोर्ट पहुँचा। बहुत देर से पहुँचा। और जब पहली बार उसको देखा तो बस, देखता ही रह गया। बहुत बदल गए थी उसकी सूरत। और उसकी अदाएं भी अब निराली थी। अब उसकी आवाज़ भी अब आस-पास के माहौल को गूंजा देने के लिए काफ़ी थी। आज मैं अपनी बेटी को हमेशा अपने पास रखने के लिए लेकर जा रहा था। और बस पूरे रास्ते उसकी सूरत देखने से जैसे मन ही नही भर रहा था। .....

Thursday, April 9, 2009

किट्टी नहीं रही | (31-03-2009)

किट्टी - एक प्यारी सी संगीनी|
जब ये अपना बचपन एक नए परिवार में बिता रही थी तो मैंने भी अपने विदेश के बचपन की यात्रा शुरू की थी| जब इसने अनजान से लोगों की अनजान सी भाषा को समझना शुरू किया था, तब मैंने भी मेरी मातृभाषा को अलविदा कह अंग्रेजी से दो-२ हाथ किये थे| मुझे अपने सफ़र की याद आज भी ताजा है, और आज जब किट्टी नहीं रही तो सोच रहा हूँ कि उसका सफ़र कैसा रहा होगा?

वो इंसान का एक जानवर के साथ बर्ताव, कभी जूठन तो कभी बासी खाना| क्या उसने कभी सोचा होगा कि एक नाज़ुक सा बचपन जहाँ एक माँ खूब सारा प्यार देती है, अच्छे से अच्छा खाना देती है, वहां उसे एक दूसरो की दी हुई मजबूर से ज़िन्दगी जीनी होगी? शायद उसके भी कुछ ख्वाब रहे होंगे, एक सुनहरी सी ज़िन्दगी के| पर आखिर ख्वाब तो ख्वाब होते हैं, कुछ पूरे और कुछ अधूरे से|

मेरी विदेश यात्रा का बचपन, एक उभरते हुए देश से एक अग्रणी देश का सफ़र| मेरी दास्ताँ भी किट्टी के बचपन से कुछ अलग नहीं, कुछ सुनहरे से सपनो को टूटते हुए मैंने भी देखा| कुछ पाया तो बहुत कुछ खोया भी| माँ के हाथ की चुपडी हुई रोटी से..... एक सूखी सी bread को मैंने भी चबाया| 

वो सर्द सी रातें, जब एक मोटी सी रजाई में भी ठण्ड के मारे हालत बुरी रहती थी, किट्टी का बाहर ठण्ड में सारी रात घर का पहरा देना| सच, उसने धीरे -२ सब का मन मोह लिया| फिर दिन कुछ ऐसे पलटे की वो सब की चहेती हो गयी|  सबने उसको अपना लिया| और शायद घर के उस एक इंसान की वो सबसे प्यारी हो गयी जिसने शुरू में उसका सबसे अधिक विरोध किया था| किट्टी को भी ताजा खाना मिलने लगा| सर्द रातों में सोने की लिए उसके लिए भी कुछ गर्म इंतजाम (बोरी) किये जाने लगे| कुल मिला कर, वो सभी की चहेती हो चली| 

एक बात जो मैं कभी नहीं भूलता, वो थी उसकी अपनों की पहचान| सालों बाद जब मैं अपने घर पहुंचा तो मुझे लगा की शायद अब तो मैं भी उसके लिए एक अनजान ही हूँ, पर पता नहीं कैसे, उसने मेरा उसी अपने पहचाने तरीके से स्वागत किया जैसे की मेरी उसके साथ बरसों की पहचान थी| या कहिये शायद एक की आपबीती ने दूसरे को दूर से ही पहचान लिया| उस समय वो मुझे एक इंसान से कहीं अधिक समझ वाली लगी, जिसने मुझ से ना कोई सवाल किये और न मेरे आने पे कोई ऐतराज़, बस एक प्यार भरा स्वागत|

काश मैं उसकी भाषा समझ पाता और उस से उसकी आपबीती पूछता और अपनी कहानी भी उसे बतला सकता| पर कुदरत ने बहुत सोच समझ कर सबकी भाषा को अलग-२ बनाया है| सबको अपनी कहानी खुद ही लिखने का अवसर दिया है|

अब वो अपना वक़्त पूरा कर एक नयी दुनिया की और जा चुकी है| शायद कुछ अच्छी और कुछ बुरी सी यादों के साथ| एक हमसफ़र का साथ हमसे छूट चला| तमन्नाएं थी की उस अपने एक प्यारे से साथी से पूछ पाता कि अनजान सफ़र की राह, वो मुश्किल सी पगडंडियाँ और वो छोटी सी राह के हमसफ़र, कैसा लगा उसे वो सब कुछ? और जाते हुए अपने साथी को अपनी इन आँखों से अलविदा कह पाता| काश आने वाले वक़्त में कभी कहीं अपने उस साथी से मुलाक़ात होगी, कुछ अजनबी और अनजान सी राहों पे| 

-एक छोटी सी राह का हमसफ़र|


Friday, April 3, 2009

सुख और आनंद

सुख और आनंद
शायद ये दोनों शब्द एक जैसे लगें..
पर नही.. दोनों में बहुत फर्क है.

सुख एक अभिलाषा है.. पर आनंद एक अनुभूति है..
शायद किसी को दुःख में भी आनंद की अनुभूति हो..

कुछ लोग शायद इसे समझ पाएं और कुछ लोग नहीं..

बस इतना ही..
:)