ग़ज़ल सुन रहा हूँ और साथ में एक आतिशी कविता पढ़ रहा हूँ|(http://anuragdhanda.blogspot.com/) दोनों का कोई combination नहीं है, पर अजनबी राह पर चलने की अब आदत सी हो चली है.. सो आज भी..
यहाँ ना किसी हसीना का जिक्र है और ना ही अभी ऐसी कोई तमन्ना है, पर सोच रहा हूँ कि मैं कब और कहाँ खो गया इस दुनिया की रवानगी में| किसी अंधी सी दौड़ का मैं भी बस एक घोडा सा बन कर रह गया हूँ| मेरे आस-पास भी बहुत कुछ ऐसा ही है| सब चले जा रहे हैं एक अजनबी सी राह पर, जिसका ना कोई छोर है और ना ठिकाना|
ऐ ज़िन्दगी.. जब तुझ से पड़ा मेरा वास्ता,
मुझे भी एक पल सोचना पड़ा,
आज जी लूँ तुझे कि कल का इंतज़ार करूँ|
पल-पल फिसले रेत की तरह तू,
जितनी करूँ पकड़ गहरी, उतनी न संभले तू..
आज ठहर जा ज़रा गलियों में मेरी,
तुझे जीना ज़रा मैं भी सिखा दूँ|
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